Sunday, March 7, 2010

फ़ैशनेबल शहर की दिल को चुराती औरतें - महिला दिवस पर

ग़ज़ल

देखा करता हूँ सड़क पर आती जाती औरतें

फ़ैशनेबल शहर की दिल को चुराती औरतें

अपने शौहर से न जाने क्यों रहें नाराज़ ये

दूसरे मर्दों से मिलते मुस्कुराती औरतें

चाट का ठेला लगाना चाहता हूँ मैं भी अब

चाट पर रहती हैं हरदम भिनभिनाती औरतें

मैं भी क्रिकेट खेलता तो हूँ गली की टीम में

मेरे पीछे क्यों नहीं चक्कर लगाती औरतें

रात दिन इमरान* जो अमृत गटागट पी रहा

हमको भी काश बो अमृत पिलाती औरतें

( श्री श्री इमरान हाशमी जी महाराज)

बाद शादी के

न जाने क्या हुआ है

पेट को

खाब में

-आ के उसको हैं डराती

औरतें

सेंक रही है नारी आँखें

ग़ज़ल
पिचके गाल सुपारी आँखें
बंद पड़ी सरकारी आँखें

मुश्क़िल से खुलती हैं प्यारे
नींद से बोझल भारी आँखें

जेब चीरती दिल तक पहुँचें
बाबू की दोधारी आँखें

साहब घूरें तो झुक जाएं
जनता की बेचारी आँखें

अपना दिल तो काँप उठता है
करें हुकम जब जारी आँखें

अंग दिखाता नर बेचारा
सेंक रही है नारी आँखें

हर दफ़्तर में दिख जाती हैं
कड़वी आँखें खारी आँखें

अब पेड़ों पर उगा करेंगी
बेचेंगे व्योपारी आँखें

जेब के पैसे गिन लेती हैं
उन की कारोबारी आँखें

पेट है हीरो पेट पे यारो
दुनिया की बलिहारी आँखें

है अज़ल ही से जहां में हुकुमरानी पेट की

ग़ज़ल

याद आयेगी तुम्हे इक दिन कहानी पेट की
सिर धुनोगे तुम की क्यों मैंने न मानी पेट की

साथ इक दिन छोड़ देंगे जब तुम्हारे हाथ पैर
तब बहुत याद आएगी तुमको जवानी पेट की

जिस जुबां से रात दिन देते हो गाली पेट को
उस जुबां को काट लेगी बेज़ुबानी पेट की

हाथ पैरों को जुबां को सिर को सीने को जनाब
पेट ज़िंदा रख रहा है मेहरबानी पेट की

जो भी कुछ आंखों को दिखता है वो सब हो पेट में
पूरी होती ही नही हसरत पुरानी पेट की

कष्ट ही पाया है जिसने दिल दुखाया पेट का
मौज उसने की है जिसने बात मानी पेट की

पेट ही से चल रहा है वक्त का सारा निजाम
है अज़ल ही से जहां में हुकुमरानी पेट की