ग़ज़ल
पिचके गाल सुपारी आँखें
बंद पड़ी सरकारी आँखें
मुश्क़िल से खुलती हैं प्यारे
नींद से बोझल भारी आँखें
जेब चीरती दिल तक पहुँचें
बाबू की दोधारी आँखें
साहब घूरें तो झुक जाएं
जनता की बेचारी आँखें
अपना दिल तो काँप उठता है
करें हुकम जब जारी आँखें
अंग दिखाता नर बेचारा
सेंक रही है नारी आँखें
हर दफ़्तर में दिख जाती हैं
कड़वी आँखें खारी आँखें
अब पेड़ों पर उगा करेंगी
बेचेंगे व्योपारी आँखें
जेब के पैसे गिन लेती हैं
उन की कारोबारी आँखें
पेट है हीरो पेट पे यारो
दुनिया की बलिहारी आँखें
Sunday, March 7, 2010
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