Sunday, March 7, 2010

सेंक रही है नारी आँखें

ग़ज़ल
पिचके गाल सुपारी आँखें
बंद पड़ी सरकारी आँखें

मुश्क़िल से खुलती हैं प्यारे
नींद से बोझल भारी आँखें

जेब चीरती दिल तक पहुँचें
बाबू की दोधारी आँखें

साहब घूरें तो झुक जाएं
जनता की बेचारी आँखें

अपना दिल तो काँप उठता है
करें हुकम जब जारी आँखें

अंग दिखाता नर बेचारा
सेंक रही है नारी आँखें

हर दफ़्तर में दिख जाती हैं
कड़वी आँखें खारी आँखें

अब पेड़ों पर उगा करेंगी
बेचेंगे व्योपारी आँखें

जेब के पैसे गिन लेती हैं
उन की कारोबारी आँखें

पेट है हीरो पेट पे यारो
दुनिया की बलिहारी आँखें

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